खाड़ी में पुरानी रणनीतियों की ओर लौट रहा बाइडन प्रशासन

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Biden administration returning to old strategies in the Gulf
खाड़ी में पुरानी रणनीतियों की ओर लौट रहा बाइडन प्रशासन

संयुक्त अरब अमीरात में प्रोटोकॉल की ज़रूरत से परे जाकर हैरिस के प्रतिनिधिमंडल में ऑस्टिन और बर्न्स की मौजूदगी पर मास्को की नज़र होगी। ये लोग रूस को “नापसंद” किये जाने और विश्व मंच पर इसे कमज़ोर किये जाने के लिहाज़ से बाइडेन की रणनीति के मुख्य स्तंभ हैं।

अबू धाबी के अमीर और संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति शेख़ ख़लीफ़ा बिन ज़ायद अल-नाहयान के निधन के मौक़े पर वाशिंगटन की नुमाइंदगी करने वाले जो बाइडेन प्रशासन की संपूर्ण विदेश और सुरक्षा नीति प्रतिष्ठान का यह ग़ैर-मामूली नज़रिया एक ज़बरदस्त संदेश देता है। उस संदेश में छिपे इशारों को पढ़ना भ्रामक रूप से सरल लग सकता है।

उप राष्ट्रपति कमला हैरिस की अगुवाई वाले उस अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल में विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन, रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन, जलवायु राजदूत जॉन केरी और सीआईए निदेशक बिल बर्न्स शामिल थे। पहली नज़र में हद से बढ़कर किया गया यह कार्य उस संयुक्त अरब अमीरात के साथ रिश्तों को बेहतर बनाने की गहरी इच्छा का संकेत देता है, जो दशकों से अमेरिकी क्षेत्रीय रणनीतियों का एक मुख्य आधार रहा है।

बाइडेन को मालूम है कि उनके राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान अमेरिका की क्षेत्रीय नीति लगातार कमज़ोर होती गयी है। बाइडेन जब राष्ट्रपति के उम्मीदवार थे,तो उन्होंने उस दरम्यान जोश के साथ लोकतंत्र और मानवाधिकारों को बढ़ावा देने की वकालत किया करते थे, लेकिन यूएई और सऊदी अरब की ओर से पीछे धकेलने के बाद अब वह अपना क़दम पीछे कर रहे हैं।

बाइडेन इस बात से भौंचक हैं कि उनके पूर्ववर्ती डोनाल्ड ट्रम्प अब भी उन शेख़ों के बीच लोकप्रिय हैं, जो 2024 में बाद ट्रम्प की वापसी को लेकर आस बांधे हुए हैं। वॉल स्ट्रीट और सैन्य-औद्योगिक परिसर इस बात से नाख़ुश हैं कि बाइडेन सोने के अंडे देने वाली इस हंस को मार सकते हैं। बाडेन ईरान के साथ जुड़ने के अपने फ़ैसले से इज़रायल और खाड़ी अरब सहयोगियों को भी परेशान कर रहे हैं। सऊदी अरब और यूएई का इस बात से मोहभंग हो गया है कि अमेरिका उन्हें यमन के हूतियों से बचाने में असमर्थ या अनिच्छुक है।

कोई शक नहीं कि बाइडेन को इसके लिए पूरी तरह से ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए। उनकी टीम में शामिल नव-रूढ़िवादी अरबों को नहीं समझ पा रहे हैं। शायद, ऐसा पहली बार था कि कोई सऊदी क्राउन प्रिंस ने एक अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को अपने साथ मानवाधिकारों के मुद्दों पर बात करने और जमाल ख़शोगी की हत्या की जवाबदेही मांगने के सवाल पर चुप करा दिया हो।

सही मायने में यह कोई सांस्कृतिक मुद्दा भी नहीं है,क्योंकि दूसरे पश्चिमी नेता इस क्षेत्र में कहीं बेहतर काम कर रहे हैं। फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन ने उल्लेखनीय रूप से अच्छा प्रदर्शन किया है। यहां तक कि मैक्रॉन ने संयुक्त अरब अमीरात के साथ लड़ाकू विमानों को लेकर अरबों डॉलर का एक बड़ा सौदा भी बाइडेन की नाक के नीचे से छीन लिया है, जबकि ब्लिंकन ने अबू धाबी के चीन के साथ बढ़ते रिश्तों को हथियारों की आपूर्ति पर आगे बढ़ने की एक पूर्व शर्त बना दिया है।

रणनीतिक नज़रिये से देखा जाये तो बाइडेन की जो नीति है,उससे यहां की भू-राजनीति भी अस्थिर हो गयी है। यूक्रेन में जो कुछ आख़िरी नतीजा आता है,उससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, पश्चिम एशियाई देश रूस को “मिटाने” को लेकर अमेरिका की मदद करने के मूड में नहीं हैं। आसियान (Association of Southeast Asian Nations) की तरह जीसीसी(Gulf Cooperation Council) भी किसी का पक्ष नहीं लेगा। लेकिन, दक्षिण पूर्व एशिया के उलट पश्चिम एशिया में अमेरिका की भारी सैन्य उपस्थिति है। दरअसल, यह एक संकट की स्थिति है।

Joe Biden
Joe Biden

इस बीच वाशिंगटन यह मानकर परेशान हो गया है कि पश्चिम एशिया अब प्राथमिकता नहीं रह गया है,जबकि हिंद-प्रशांत रणनीति सर्वोपरि चिंता का विषय बन गयी है। यह भ्रम भी रातोंरात ख़त्म हो गया है, क्योंकि रूस को अलग-थलग करने और कमज़ोर करने को लेकर बाइडेन की जुनूनी ज़रूरत उस ओपेक प्लस को समाप्त करने पर निर्भर करती है, जिसका मास्को तेल उत्पादक देशों के साथ समन्वय करने के लिए ख़ौफ़नाक़ तरीक़े से इस्तेमाल करता है। तेल व्यापार रूस की आय का एक मुख्य स्रोत है, और तेल की क़ीमत जितनी ही ज़्यादा होती है, क्रेमलिन की राजनीति उतनी ही तेज़ होती जाती है। यूरोप की रूसी ऊर्जा पर भारी निर्भरता को दूर करने के लिए पश्चिम एशियाई तेल अहम है।

पश्चिम एशियाई देशों ने अब तक वाशिंगटन के डाले गये अंड़ंगों को खारिज कर दिया है और ओपेक प्लस ढांचे में रूस के साथ काम करना जारी रखा है। ओपेक रूस के ख़िलाफ़ यूरोपीय संघ की तरफ़ से लगाये जाने वाले तेल प्रतिबंधों को लेकर चेतावनी देता रहा है। (यूक्रेन में रूसी अभियान शुरू होने के बाद यूएई के विदेश मंत्री ने मास्को का दौरा किया था।)

बेशक, पेट्रोडॉलर पश्चिमी बैंकिंग प्रणाली का एक प्रमुख आधार है और डॉलर को विश्व मुद्रा के रूप में टिकाये  रखता है। हालांकि, सऊदी अरब पहले से ही चीन के साथ युआन मुद्रा में किये जाने वाले अपने विशाल तेल व्यापार के हिस्से पर बातचीत कर रहा है और मिस्र युआन में बॉंड जारी करने की योजना बना रहा है। यूएई की चीन के साथ मुद्रा विनिमय की अलग व्यवस्था है।

इस तरह, बाइडेन ने फ़ैसला किया है कि यूएई के साथ रिश्ते को फिर से क़ायम करना एक अनिवार्य आवश्यकता है। बड़ा सवाल इस रिश्ते को फिर से क़ायम करने के रूप-रंग को निर्धारित करने को लेकर है। जो उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल अबू धाबी भेजा गया है,उससे तो यही पता चलता है कि आख़िर प्रशासन की प्राथमिकतायें कहां हैं। वाशिंगटन संयुक्त अरब अमीरात की सुरक्षा को लेकर अमेरिकी प्रतिबद्धता को ज़ोर-शोर से दोहरा रहा है। यह भविष्य में होने वाली हथियारों की बिक्री के साथ-साथ संयुक्त अरब अमीरात की सुरक्षा चिंताओं को दूर करने के रूप में प्रतिबिंबित होता है। ऐसे में सवाल उठता है कि यह प्राथमिकता वाशिंगटन के आर्टिकल 5 प्रकार की औपचारिक सुरक्षा गारंटी को लेकर सऊदी-अमीराती अपेक्षा को पूरा करने के लिहाज़ से पर्याप्त होगी ?(आर्टिकल 5 में यह प्रावधान है कि अगर नाटो सहयोगी सशस्त्र हमले का शिकार होते हैं, तो गठबंधन का प्रत्येक सदस्य हिंसा के इस कृत्य को सभी सदस्यों के खिलाफ सशस्त्र हमला मानेगा और सहयोगी हमले की मदद के लिए ज़रूरी कार्रवाई करेगा)। यह सवाल जितना ही अहम है,उतना ही इसका जवाब आसान नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि तेहरान के साथ 2015 के परमाणु समझौते की बहाली और प्रतिबंधों को हटाने के साथ-साथ संयुक्त अरब अमीरात के गंभीर मुद्दे भी हैं।

लेकिन, अगर इसके बावजूद अमेरिका संयुक्त अरब अमीरात के साथ एक औपचारिक आर्टिकल 5 सुरक्षा समझौता करता है, तो सऊदी अरब, कतर आदि की तरफ़ से भी इसी तरह की मांग होना तय है। और जैसा कि इस समय स्थिति दिखायी दे रही है कि अमेरिका यूरोप और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बहुत ज़्यादा फैला हुआ है। अगर हम ग़लत नहीं हैं,तो सऊदी अरब भी एक ऐतिहासिक बदलाव की ओर धीरे-धीरे अपने क़दम बढ़ा रहा है। विरोधाभास यह है कि वाशिंगटन को इस बात की भी चिंता है कि सउदी और अमीरात आने वाले दिनों में हथियारों की बिक्री को लेकर चीन और रूस की ओर रुख़ कर सकते हैं, जिससे कि पश्चिम एशिया में अमेरिका का क्षेत्रीय प्रभाव और कमज़ोर होगा।

बुनियादी तौर पर यहां एक तरह का विरोधाभास है। अबू धाबी में इस तरह के एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल के भेजे जाने से जो बड़ा संदेश जा रहा है, वह यह है कि बाइडेन प्रशासन इज़रायल, यूएई और सऊदी अरब के साथ अमेरिकी गठबंधन पर आधारित पुरानी रणनीतियों की ओर लौट रहा है, जिसका असली मक़सद ईरान को रोकना है। रूस (और चीन) के साथ ईरान के घनिष्ठ संबंधों को नज़र में रखते हुए अभी यह देखना बाक़ी है कि यह कैसे मुमकिन हो पाता है।

सीरिया में रूस के साथ इज़राइल की संघर्ष-समन्वय व्यवस्था यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद (अमेरिकी दबाव में) खुल गयी है। निश्चित रूप से यह कोई संयोग नहीं है कि पहली बार रूस ने सीरिया पर इज़रायली हमले को नाकाम करने के लिए एस -300 मिसाइलें उस समय दाग दी थी,जब एक उच्च स्तरीय अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल इस क्षेत्र का दौरा कर रहा था।

कुल मिलाकर लब्बोलुआब यही है कि यूक्रेन में यूएस-रूस टकराव की काली छाया पश्चिम एशियाई क्षेत्र पर मंडरा रही है। क्रेमलिन के प्रवक्ता दिमित्री पेसकोव ने मंगलवार को अपनी एक अप्रत्यक्ष टिप्पणी में कहा कि मास्को के नज़रिये में अब तक “अमित्र” रहे अमेरिका  को ज़्यादा उचित रूप से “शत्रुतापूर्ण” देश कहा जाता है। इस तरह,यह जो कुछ चल रहा है,वह इस जटिल पृष्ठभूमि की उपज है कि एक प्रमुख पश्चिम एशियाई सहयोगी, संयुक्त अरब अमीरात के साथ अमेरिका के संबंधों को फिर से स्थापित करने के लिए बाइडेन प्रशासन के प्रयास को तौले जाने की ज़रूरत है।

संयुक्त अरब अमीरात में प्रोटोकॉल की ज़रूरत से परे जाकर हैरिस के प्रतिनिधिमंडल में ऑस्टिन और बर्न्स की मौजूदगी पर मास्को की नज़र होगी। वे रूस को “नापसंद” किये जाने और विश्व मंच पर इसे कमज़ोर किये जाने के लिहाज़ से बाइडेन की रणनीति के मुख्य स्तंभ हैं।

Source: hindi.newsclick.in

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