भारत में मौसम के पैटर्न में तेजी से बदलाव देखा जा रहा है, जो प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और गंभीरता को बढ़ा रहा है। हाल के वर्षों में बाढ़, भूस्खलन, सूखा और चक्रवात जैसी घटनाएँ देश के विभिन्न हिस्सों में तबाही मचा रही हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन और मानव गतिविधियों के परिणामस्वरूप ये आपदाएँ और भी खतरनाक होती जा रही हैं। यह लेख इन बदलावों, उनके कारणों और भारत पर पड़ने वाले प्रभावों पर गहराई से प्रकाश डालता है।
मौसम में बदलाव के संकेत
पिछले कुछ दशकों में भारत में मानसून का व्यवहार अनियमित हो गया है। कुछ क्षेत्रों में भारी बारिश और बाढ़ ने तबाही मचाई, जबकि अन्य हिस्सों में सूखे की स्थिति बनी रही। उदाहरण के लिए, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्यों में बादल फटने और भूस्खलन की घटनाएँ बढ़ी हैं, जो 2013 के केदारनाथ त्रासदी की याद दिलाती हैं।
इसी तरह, तटीय क्षेत्रों में चक्रवात की तीव्रता और आवृत्ति में वृद्धि हुई है, जैसे कि 2020 में आए अम्फान और 2021 में तौकते। ये बदलाव मौसम विज्ञानियों के लिए चिंता का विषय हैं।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
जलवायु परिवर्तन को इन आपदाओं का प्रमुख कारण माना जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण तापमान में वृद्धि ने वायुमंडल की नमी को बढ़ाया है, जिससे भारी बारिश की घटनाएँ तेज हुई हैं। साथ ही, हिमालयी ग्लेशियरों का पिघलना और वनों की कटाई ने भूस्खलन की संभावना को बढ़ाया है।
विशेषज्ञों का कहना है कि कार्बन उत्सर्जन और औद्योगिकीकरण ने इस समस्या को और जटिल बना दिया है। भारत, जो वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में बड़ा योगदान नहीं देता, फिर भी इसके प्रभावों से सबसे अधिक प्रभावित हो रहा है।
मानव गतिविधियों की भूमिका
मानव गतिविधियाँ भी इन आपदाओं को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। अंधाधुंध शहरीकरण, अवैज्ञानिक खनन और नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में बदलाव ने प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ा है। पहाड़ी क्षेत्रों में अनियंत्रित निर्माण और सड़क विस्तार ने मिट्टी की स्थिरता को कम कर दिया है, जिससे भूस्खलन की घटनाएँ बढ़ी हैं। इसके अलावा, बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाए गए बांध और जलाशय अक्सर ओवरफ्लो होकर निचले इलाकों में तबाही मचा देते हैं।
क्षेत्रीय प्रभाव
उत्तर भारत के पहाड़ी राज्यों में बादल फटने और बाढ़ ने गाँवों को नष्ट कर दिया है, जिससे सैकड़ों लोग लापता हुए हैं। केरल और तमिलनाडु जैसे दक्षिणी राज्यों में भारी बारिश ने फसलों को नुकसान पहुँचाया है, जिससे किसानों की आजीविका पर संकट आया है। पूर्वोत्तर में ब्रह्मपुत्र नदी का उफान और पश्चिम बंगाल में चक्रवातों ने बुनियादी ढांचे को नुकसान पहुँचाया है। ये आपदाएँ न केवल जीवन और संपत्ति को प्रभावित कर रही हैं, बल्कि आर्थिक विकास को भी बाधित कर रही हैं।
सरकारी और सामुदायिक प्रतिक्रिया
सरकार ने आपदा प्रबंधन के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (NDRF) और राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों को सक्रिय किया है। हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि इन प्रयासों में समन्वय की कमी और संसाधनों की कमी देखी जाती है। स्थानीय समुदायों ने भी स्वयं-सहायता समूह बनाकर राहत कार्यों में योगदान दिया है, लेकिन दीर्घकालिक समाधान के लिए जागरूकता और प्रशिक्षण की जरूरत है।
भविष्य की चुनौतियाँ और समाधान
आने वाले वर्षों में मौसम संबंधी आपदाओं की संख्या में और वृद्धि की संभावना है, खासकर अगर ग्लोबल वार्मिंग पर नियंत्रण नहीं किया गया। इसके लिए हरित ऊर्जा, वनीकरण और जल संरक्षण जैसे कदम उठाने की जरूरत है। साथ ही, शहरी नियोजन में जल निकासी और आपदा-रोधी बुनियादी ढांचे पर ध्यान देना होगा। शिक्षा और जागरूकता अभियान भी इन आपदाओं से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
वैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण
वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु मॉडलिंग और प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों को मजबूत करना जरूरी है। दूसरी ओर, सामाजिक संगठनों का कहना है कि गरीब और हाशिए के समुदाय इन आपदाओं से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं, इसलिए उनके लिए विशेष राहत और पुनर्वास योजनाएँ बनानी होंगी।