2013 में कांगेस के जयपुर में हुए चिंतन शिविर में राहुल गांधी की कांग्रेस के उपाध्यक्ष पद पर ताजपोशी हुई थी. शिविर के आखिरी दिन उन्होंने कहा था कि मुझे विश्वास है, हम कांग्रेस में बदलाव ला सकते हैं. टिकट बांटते समय ऊपर (आलाकमान) से फैसला लिया जाता है. जमीन पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं से पूछा नहीं जाता है.
कोरोना की दूसरी लहर के बीच कांग्रेस की कार्यसमिति की बैठक में 23 जून को होने वाले पार्टी के नये अध्यक्ष और अन्य आंतरिक चुनाव को टाल दिया गया. कांग्रेस की ओर से बताया गया कि चुनाव टालने का फैसला कोरोना महामारी के चलते लिया गया है. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी कोरोना संक्रमित होने की वजह से इस बैठक में शामिल नहीं हुए थे. कांग्रेस अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी की ताजपोशी तय मानी जा रही है, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद वह कई बार इस पद को लेकर उदासीनता जाहिर कर चुके हैं. G-23 नेताओं की ‘नये नेतृत्व और संगठन में बदलाव’ की मांग के बाद से ही कहा जाने लगा था कि कांग्रेस में फिर से ‘टूट’ की संभावना बन रही है. भाजपा की ओर से भी कांग्रेस पर ‘परिवारवाद’ को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे हैं. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या राहुल गांधी कांग्रेस की कमान नये हाथों में देकर कोई बड़ा संदेश देंगे?
दोबारा अध्यक्ष नहीं बनने की वजह क्या है?
2013 में कांगेस के जयपुर में हुए चिंतन शिविर में राहुल गांधी की कांग्रेस के उपाध्यक्ष पद पर ताजपोशी हुई थी. शिविर के आखिरी दिन उन्होंने कहा था कि मुझे विश्वास है, हम कांग्रेस में बदलाव ला सकते हैं. टिकट बांटते समय ऊपर (आलाकमान) से फैसला लिया जाता है. जमीन पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं से पूछा नहीं जाता है. राहुल गांधी के भाषण में ‘बदलाव’ की बात से कांग्रेसियों में ‘लुटियन जोन’ के नेताओं से मुक्ति की उम्मीद बंधी थी. लेकिन, कांग्रेस में अंदर तक घर कर चुकी दरबारी संस्कृति ने राहुल गांधी के विश्वास को दूर किसी कोठरी की खूंटी पर टंगवा दिया. 2014 और 2019 के आम चुनाव में मिली हार से कांग्रेस ने ना सही, लेकिन शायद राहुल गांधी ने सबक सीखने की कोशिश की है. 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गांधी ने हार की जिम्मेदारी लेते हुए कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था.
जिसके बाद राहुल गांधी ने कहा था कि अगला अध्यक्ष गांधी परिवार से नहीं होगा. इस बात को अब करीब दो साल बीत चुके हैं, लेकिन कांग्रेस को अध्यक्ष नहीं मिल सका है. हालांकि, अंतरिम अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी अभी भी पद पर बनी हुई हैं. वैसे, कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने पहले से ही कांग्रेस अध्यक्ष पद से दूरी बना रखी है. वहीं, कांग्रेस अध्यक्ष पद को लेकर प्रियंका गांधी खुद राहुल गांधी से सहमत होती नजर आ चुकी हैं. बीते साल अगस्त में ही उन्होंने कहा था कि अगर गांधी परिवार को छोड़कर कोई अन्य पार्टी का अध्यक्ष बनता है, तो उन्हें उसके साथ काम करने में कोई दिक्कत नहीं होगी. प्रियंका गांधी की इस बात को हालािया परिस्थितियों के हिसाब से नकारा नहीं जा सकता है.
भाजपा ने खड़ा कर दिया है ‘नया संकट’
हालिया पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों में कांग्रेस का प्रदर्शन सबके सामने है. तमिलनाडु में डीएमके साथ कांग्रेस सहयोगी दल की भूमिका में है. पश्चिम बंगाल, पुडुचेरी, केरल और असम में कांग्रेस को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा. नतीजों के सामने आने के बाद कांग्रेस के कई नेताओं ने ‘आत्ममंथन’ की बात भी कह दी थी. कहना गलत नहीं होगा कि हालिया विधानसभा चुनावों के नतीजों ने राहुल गांधी के लिए चुनौतियां को काफी हद तक बढ़ा दिया है. असम में भाजपा में शामिल होने से पहले कांग्रेस के नेता रहे हिमंत बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री पद का ‘इनाम’ दिया गया है. भाजपा में लंबे समय से चली आ रही परिपाटी से अलग हिमंत बिस्वा सरमा को सीएम बनाए जाने से कांग्रेस के सामने एक अलग तरह की मुश्किल पैदा हो गई है.
भाजपा के इस नये पैंतरे ने कांग्रेस में असंतुष्टों के लिए एक नया रास्ता खोलने का संकेत दे दिया है. इससे पहले राहुल गांधी के करीबी और संसद में उनके ठीक बगल में बैठने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी कांग्रेस को दांव देते हुए भाजपा का दामन थामा था. जिसकी वजह से मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार धड़ाम हो गई थी. खैर, ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा में जाने का ‘फल’ कब मिलेगा, ये वक्त बताएगा. लेकिन, इस बात की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है कि राहुल गांधी के सामने कांग्रेस को भाजपा से ‘बचाए’ रखने की भी सबसे बड़ी चुनौती होगी.
अध्यक्ष बने, तो विपक्ष का नेता भी नहीं रह जाएंगे
पंजाब, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की स्थायी सरकार फिलहाल किसी खतरे में नहीं है. लेकिन, राजस्थान में सचिन पायलट इसे झटका दे चुके हैं. पंजाब में भाजपा से कांग्रेस में आए राहुल गांधी के करीबी नवजोत सिंह सिद्धू ने ‘पद’ के लिए ही मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की नाक में दम कर रखा है. छत्तीसगढ़ में हालात ठीक हैं, लेकिन किसी की महात्वाकांक्षा पनपने में दिन ही कितने लगते हैं? हालिया विधानसभा चुनावों के बाद राहुल गांधी के सामने ममता बनर्जी के रूप में एक नई चुनौती भी आ खड़ी हुई है. महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार के दल शिवसेना ने ममता बनर्जी को ‘बंगाल की शेरनी’ की उपमा दी है. वहीं, शिवसेना नेता संजय राउत एनसीपी नेता शरद पवार को यूपीए का नेता बनाने की मांग भी करते रहे हैं.
राहुल गांधी को शरद पवार से ज्यादा ममता बनर्जी से सावधान रहने की जरूरत दिखाई दे रही है. राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा पर चाहे जितने सियासी हमले करें. लेकिन, ममता बनर्जी का भाजपा और पीएम मोदी के खिलाफ हर दांव उनका कद विपक्ष के नेता के तौर पर बढ़ा रहा है. पश्चिम बंगाल चुनाव में शरद पवार की एनसीपी ने भी कांग्रेस को किनारे रखते हुए ममता बनर्जी का समर्थन किया था. कई राजनीतिक दलों के मुखिया और स्टार प्रचारकों ने खुलकर ममता बनर्जी के पक्ष में रैलियां भी कीं. भाजपा से अकेले दम लोहा लेने वाली ममता बनर्जी की सर्वस्वीकर्यता का इससे बड़ा उदाहरण शायद ही देखने को मिलेगा. राहुल गांधी के लिए ये किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है.
सर्वस्वीकार्य नेता बन सकते हैं
विधानसभा चुनावों में मिली हार और पार्टी में नेतृत्व के खिलाफ उठ रही आवाजों को शांत करने के लिए वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए इस बात की पूरी संभावना है कि राहुल गांधी एक बड़ा कदम उठा सकते हैं. चुनाव नतीजे सामने आने के बाद एक बार फिर से कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव टलना इस बात का साफ संकेत है कि तमाम कोशिशों को बाद भी राहुल गांधी अध्यक्ष पद की कुर्सी पर आने को तैयार नही हैं. कांग्रेस के अध्यक्ष पद की कमान नये हाथों में थमाकर राहुल गांधी उन तमाम समस्याओं का हल निकालने की कोशिश कर सकते हैं, जिनका वादा उन्होंने 2013 में उपाध्यक्ष बनते समय किया था. राहुल गांधी अगर कांग्रेस अध्यक्ष के पद को ना कह देते हैं, तो पार्टी के साथ ही विपक्ष में भी उनकी स्वीकार्यता बढ़ने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है.
राहुल गांधी के इस एक फैसले कई चीजें अचानक से बदल जाएंगी. भाजपा जिन चीजों को हथियार बनाकर कांग्रेस और राहुल गांधी पर बाण चलाती रही है, उसका वो तरकश ही गायब हो जाएगा. सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाकर कांग्रेसियों के बीच खुद को जिस तरह ‘त्याग की मूर्ति’ बना लिया था. राहुल गांधी के सामने भी ये उसी मौके की तरह है. राहुल गांधी अगर इसे हाथ से जाने देते हैं, तो यह कांग्रेस और राहुल गांधी दोनों के लिए मुश्किलों भरा हो सकता है. फिलहाल जो परिस्थितियां हैं, उनका इशारा इसी तरफ है कि राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद किसी नये हाथों में दे सकते हैं.